रणभूमि अध्याय 13 - चक्रव्यूह

रणभूमि अध्याय 13 - चक्रव्यूह

13वें दिन का युद्ध लेकर मैं आपका सूत्रधार अनुज आपके बीच पुनः उपस्थित हूँ। यह भाग पिछले भागों से कुछ अलग है। यह पूरे महाभारत युद्ध का सबसे मार्मिक दिन है। इस दिन को मैथिलीशरण गुप्त की रचना जयद्रथ वध खण्ड काव्य के कुछ अंशो से भी दर्शाने का प्रयास किया है। 

13वें दिन के लिए द्रोण ने चक्रव्यूह रचना बनाई। पुनः संशप्तक प्रण लेकर योद्धा अर्जुन को रोकने के लिए लाल वस्त्र पहनकर तैयार थे। भीमसेन, सात्यकि, चेकितान, धृष्टकेतु, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी जैसे अनेक योद्धाओं ने कौरवों के व्यूह को भेदने की चेष्टा की परन्तु सफल ना हो सके। तब अभिमन्यु, युधिष्ठिर के पास गया और चक्रव्यूह में प्रवेश करने की आज्ञा माँगी। अभिमन्यु चक्रव्यूह का भेदन जानता था परन्तु उससे बाहर निकलना नहीं जानता था इसलिए युधिष्ठिर आदि योद्धाओं ने अभिमन्यु से एक द्वार बनाने को कहा ताकि पाण्डव सेना भी चक्रव्यूह के अन्दर प्रवेश कर सके।

रणधीर द्रोणाचार्य-कृत दुर्भेद्य चक्रव्यूह को,
शस्त्रास्त्र, सज्जित, ग्रथित, विस्तृत, शूरवीर समूह को,
जब एक अर्जुन के बिना पाण्डव ना भेद कर सके,
तब बहुत ही व्याकुल हुए, सब यत्न कर करके थके।
यों देख कर चिन्तित उन्हें धर ध्यान समरोत्कर्ष का,
प्रस्तुत हुआ अभिमन्यु रण को शूर षोडश वर्ष का।
वह वीर चक्रव्यूह-भेदने में सहज सज्ञान था,
निज जनक अर्जुन-तुल्य ही बलवान था, गुणवान था।
‘‘हे तात्! तजिए सोच को है काम क्या क्लेश का?
मैं द्वार उद्घाटित करूँगा व्यूह-बीच प्रवेश का।’’
यों पाण्डवों से कह, समर को वीर वह सज्जित हुआ,
छवि देख उसकी उस समय सुरराज भी लज्जित हुआ।
 
नर-देव-सम्भव वीर वह रण-मध्य जाने के लिए,
बोला वचन निज सारथी से रथ सजाने के लिए।
यह विकट साहस देख उसका, सूत विस्मित हो गया,
कहने लगा इस भाँति फिर देख उसका वय नया-
‘‘हे शत्रुनाशन! आपने यह भार गुरुतर है लिया,
हैं द्रोण रण-पण्डित, कठिन है व्यूह-भेदन की क्रिया।
रण-विज्ञ यद्यपि आप हैं पर सहज ही सुकुमार हैं,
सुख-सहित नित पोषित हुए, निज वंश-प्राणाधार हैं।’’
सुन सारथी की यह विनय बोला वचन वह वीर यों-
करता घनाघन गगन में निर्घोष अति गम्भीर ज्यों।
‘‘हे सारथे! हैं द्रोण क्या, देवेन्द्र भी आकर अड़े,
है खेल क्षत्रिय बालकों का व्यूह-भेदन कर लड़े।
अभिमन्यु षोडश वर्ष का फिर क्यों लड़े रिपु से नहीं,
क्या आर्य-वीर विपक्ष-वैभव देखकर डरते कहीं?
सुनकर गजों का घोष उसको समझ निज अपयश-कथा,
उन पर झपटता सिंह-शिशु भी रोषकर जब सर्वथा,
फिर व्यूह भेदन के लिए अभिमन्यु उद्यत क्यों ना हो,
क्या वीर बालक शत्रु की अभिमान सह सकते कहो?
मैं सत्य कहता हूँ, सखे! सुकुमार मत मानो मुझे,
यमराज से भी युद्ध को प्रस्तुत सदा जानो मुझे!
है और की तो बात ही क्या, गर्व मैं करता नहीं,
मामा तथा निज तात से भी समर में डरता नहीं।
 
अभिमन्यु उत्साह के साथ चक्रव्यूह के भीतर जाने लगा।
 
फिर पाण्डवों के मध्य में अति भव्य निज रथ पर चढ़ा,
रणभूमि में रिपु सैन्य सम्मुख वह सुभद्रा सुत बढ़ा।
पहले समय में ज्यों सुरों के मध्य में सजकर भले;
थे तारकासुर मारने गिरिनन्दिनी-नन्दन चले।
वाचक! विचारो तो जरा उस समय की अद्भुत छटा
कैसी अलौकिक घिर रही है शूरवीरों की घटा।
दुर्भेद्य चक्रव्यूह सम्मुख धार्तराष्ट्र रचे खड़े,
अभिमन्यु उसके भेदने को हो रहे आतुर बड़े।
तत्काल ही दोनों दलों में घोर रण होने लगा,
प्रत्येक पल में भूमि पर वर वीर-गण सोने लगा!
रोने लगीं मानों दिशाएँ हो पूर्ण रण-घोष से,
करने लगे आघात सम्मुख शूर-सैनिक रोष से।
इस युद्ध में सौभद्र ने जो की प्रदर्शित वीरता,
अनुमान से आती नहीं उसकी अगम गम्भीरता।
जिस धीरता से शत्रुओं का सामना उसने किया,
असमर्थ हो उसके कथन में मौन वाणी ने लिया।
करता हुआ कर-निकर दुर्द्धर सृष्टि के संहार को,
कल्पान्त में सन्तप्त करता सूर्य ज्यों संसार को-
सब ओर त्यों ही छोड़कर जिन प्रखरतर शर-जाल को,
करने लगा वह वीर व्याकुल शत्रु-सैन्य विशाल को!
शर खींच उसने तूण से कब किधर सन्धाना उन्हें;
बस बिद्ध होकर ही विपक्षी वृन्द ने जाना उन्हें।
कटने लगे अगणित भटों के रण्ड-मुण्ड जहाँ तहाँ,
गिरने लगे कटकर तथा कर-पद सहस्त्रों के वहाँ।
केवल कलाई ही कौतूहल-वश किसी की काट दी,
क्षण मात्र में ही अरिगणों से भूमि उसने पाट दी।
करता हुआ वध वैरियों का वैर शोधन के लिए,
रण-मध्य वह फिरने लगा अति दिव्यद्युति धारण किए।
उस काल सूत सुमित्र के रथ हाँकने की रीति से,
देखा गया वह एक ही दस-बीस-सा अति भीति से।
उस काल जिस जिस ओर वह संग्राम करने को क्या,
भगते हुए अरि-वृन्द से मैदान खाली हो गया!
रथ-पथ कहीं भी रुद्ध उसका दृष्टि में आया नहीं;
सम्मुख हुआ जो वीर वह मारा गया तत्क्षण वहीं।
ज्यों भेद जाता भानु का कर अन्धकार-समूह को,
वह पार्थ-नन्दन घुस गया त्यों भेद चक्रव्यूह को।

 

अभिमन्यु चक्रव्यूह के भीतर भीषण नरसंहार मचाने लगा। अभिमन्यु का पराक्रम देखते ही बनता था। 

थे वीर लाखों पर किसी से गति ना उसकी रुक सकी,
सब शत्रुओं की शक्ति उसके सामने सहसा थकी।
पर साथ भी उसके ना कोई जा सका निज शक्ति से,
था द्वार रक्षक नृप जयद्रथ सबल शिव की शक्ति से।
अर्जुन बिना उसको ना कोई जीत सकता था कहीं,
थे किन्तु उस संग्राम में भवितव्यता-वश वे नहीं।
तब विदित कर्ण-कनिष्ठ भ्राता बाण बरसा कर बड़े,
‘‘रे खल! खड़ा रह’’ वचन यों कहने लगा उससे कड़े।
अभिमन्यु ने उसको श्रवण कर प्रथम कुछ हँसभर दिया।
फिर एक शर से शीघ्र उसका शीश खण्डित कर दिया।
यों देख मरते निज अनुज को कर्ण अति क्षोभित हुआ,
सन्तप्त स्वर्ण-समान उसका वर्ण अति शोभित हुआ,
सौभद्र पर सौ बाण छोड़े जो अतीव कराल थे,
अतः! बाण थे वे या भयंकर पक्षधारी व्याल थे।
अर्जुन-तनय ने देख उनको वेग से आते हुए,
खण्डित किया झट बीच में ही धैर्य दिखलाते हुए,
फिर हस्तलाघव से उसी क्षण काट के रिपु चाप को,
रथ, सूत्र, रक्षक नष्ट कर सौंपा उसे सन्ताप को।
यों कर्म को हारा समझकर चित्त में अति क्रुद्ध हो,
दुर्योधनात्मक वीर लक्ष्मण आ गया फिर युद्ध को।
सम्मुख उसे अवलोक कर अभिमन्यु यों कहने लगा,
मानो भयंकर सिन्धु-नद तोड़कर बहने लगा-
‘‘तुम हो हमारे बन्धु इससे हम जताते हैं तुम्हें,
मत जानियो तुम यह कि हम निर्बल बताते हैं तुम्हें,
अब इस समय तुम निज जनों को एक बार निहार लो,
यम-धाम में ही अन्यथा होगा मिलाप विचार लो।’’
उस वीर के, सुनकर वचन ये, लग गई बस आग-सी,
हो क्रुद्ध उसने शक्ति छोड़ी एक निष्ठुर नाग-सी।
अभिमन्यु ने उसको विफल कर ‘पाण्डवों की जय’ कही
फिर शर चढ़ाया एक जिसमें ज्योति-सी थी जग रही।
उस अर्धचन्द्राकार शर ने छूट कर कोदण्ड से,
छेदन किया रिपु-कण्ठ तत्क्षण फलक धार प्रचण्ड से,
होता हुआ इस भाँति भासित शीश उनका गिर पड़ा,
होता प्रकाशित टूट कर नक्षत्र ज्यों नभ में बड़ा।
तत्काल हाहाकार-युत-रिपु-पक्ष में दुख-सा छा गया।
फिर दुष्ट दुःशासन समर में शीघ्र सम्मुख आ गया।
अभिमन्यु उसको देखते ही क्रोध से जलने लगा,
निश्वास बारम्बार उसका उष्णतर चलने लगा।
रे रे नराधम नारकी! तू था बता अब तक कहाँ?
मैं खोजता फिरता तुझे सब ओर कब से कहूँ यहाँ।
यह देख, मेरा बाण तेरे प्राण-नाश निमित्त है,
तैयार हो, तेरे अघों का आज प्रायश्चित है।
अब सैनिकों के सामने ही आज वध करके तुझे,
संसार में माता-पिता से है उऋण होना मुझे।
मेरे करों से अब तुझे कोई बचा सकता नहीं।
पर देखना, रणभूमि से तू भाग मत जाना कहीं।
 
कह यों वचन अभिमन्यु ने छोड़ा धनुष से बाण को,
रिपु भाल में वह घुस गया झट भेद शीर्ष-त्राण को,
तब रक्त से भीगा हुआ वह गिर पड़ा पाकर व्यथा,
सन्ध्या समय पश्चिम-जलधि में अरुण रवि गिरता यथा
मूर्च्छित समझ उसको समर से ले गया रथ सारथी,
लड़ने लगा तब नृप बृहदबल उचित नाम महारथी।
कर खेल क्रीड़ासक्त हरि ज्यों मारता करि को कभी,
मारा उसे अभिमन्यु ने त्यों छिन्न करके तनु सभी।
उस एक ही अभिमन्यु से यों युद्ध जिस-जिस ने किया।
मारा गया अथवा समर से विमुख होकर जिया।
तब कर्ण द्रोणाचार्य से साश्चर्य यों कहने लगा-
‘‘आचार्य देखो तो नया यह सिंह सोते से जगा।
रघुवर-विशिख से सिन्धु सम सब सैन्य इससे व्यस्त हैं!
यह पार्थ-नन्दन पार्थ से भी धीर-वीर प्रशस्त है!
होना विमुख संग्राम से है पाप वीरों को महा,
यह सोचकर ही इस समय ठहरा हुआ हूँ मैं यहाँ।
जैसे बने अब मारना ही योग्य इसको है यहीं,
सच जान लीजे अन्यथा निस्तार फिर होगा नहीं।’’

 

 

अर्जुनपुत्र अभिमन्यु तो चक्रव्यूह में प्रवेश कर गया था परन्तु अपने वर के प्रभाव से जयद्रथ ने अर्जुन के अभाव में शेष पाण्डवों और अन्य योद्धाओं को व्यूह के बाहर ही रोक दिया। इस समय तक अभिमन्यु कौरव सेना के कई बड़े योद्धाओं को यमलोक भेज चुका था अतः उस पर एक साथ हमला करने के अतिरिक्त कौरव योद्धाओं के पास दूसरा कोई उपाय शेष नहीं बचा था।

 

तब सप्त रथियों ने वहाँ रत हो महा दुष्कर्म में -
मिलकर किया आरम्भ उसको बिद्ध करना मर्म में -
कृप, कर्ण, दु:शासन, दुर्योधन, शकुनि, सुत-युत द्रोण भी;
उस एक बालक को लगे वे मारने बहु-विध सभी।
अर्जुन-तनय अभिमन्यु तो भी अचल सम अविचल रहा,
उन सप्त रथियों का वहाँ आघात उसने सब सहा।
पर एक साथ प्रहार-करता हो चतुर्दश कर जहाँ,
युग कर कहो, क्या-क्या यथायथ कर सके विक्रम वहाँ?
कुछ देर में जब रिपु-शरों से अश्व उसके गिर पड़े,
तब कूद कर रथ से चला वह, थे जहाँ वे सब खड़े।
जब तक शरीरागार में रहते ज़रा भी प्राण हैं,
करते समर से वीरजन पीछे कभी ना प्रयाण हैं।
फिर नृत्य-सा करता हुआ धन्वा लिए निज हाथ में,
लड़ने लगा निर्भय वहाँ वह शूरता के साथ में।
था यदपि अन्तिम दृश्य यह उसके अलौकिक कर्म का,
पर मुख्य परिचय भी यही था वीरजन के धर्म का।
होता प्रविष्ट मृगेन्द्र-शावक ज्यों गजेन्द्र-समूह में,
करने लगा वह शौर्य त्यों उन वैरियों के व्यूह में।
तब छोड़ते कोदण्ड से सब ओर चण्ड-शरावली,
मार्तण्ड-मण्डल की उदय की छवि मिली उसको भली।
यों विकत विक्रम देख उसका धैर्य रिपु खोने लगे,
उसके भयंकर वेग से अस्थिर सभी होने लगे।
हँसने लगा वह वीर उनकी धीरता यह देख के,
फिर यों वचन कहने लगा तृण-तुल्य उनको लेख के -
 
"मैं वीर तुम बहु सहचरों से युक्त विश्रत सात हो,
एकत्र फिर अन्याय से करते सभी आघात हो।
होते विमुख तो भी अहो! झिलता ना मेरा वार है,
तुम वीर कैसे हो, तुम्हें धिक्कार सौ-सौ बार है।"
उस शूर के सुन यों वचन बोला दुर्योधन आप यों -
"है काल अब तेरा निकट करता अनर्थ प्रलाप क्यों?
जैसे बने निज वैरियों के प्राण हरना चाहिए,
निज मार्ग निष्कंटक सदा सब भाँति करना चाहिए।"
"यह कथन तेरे योग्य ही है," प्रथम यों उत्तर दिया,
खर-तर-शरों से फिर उसे अभिमन्यु ने मूर्छित किया।
उस समय ही जो पार्श्व से छोड़ा गया था तान के,
उस कर्ण-शर ने चाप उसका काट डाला आन के।
तब खींचकर खर-खड्ग फिर वह रत हुआ रिपु-नाश में,
चमकीं प्रलय की बिजलियाँ घनघोर-समराकाश में।
पर हाय! वह आलोक-मण्डल अल्प ही मण्डित हुआ,
वंचक-विपक्षी वृन्द से वह खड्ग भी खण्डित हुआ।
यों रिक्त-हस्त हुआ जहाँ वह वीर रिपु-संघात में,
घुसने लगे सब शत्रुओं के बाण उसके गात में।
वह पाण्डु-वंश प्रदीप यों शोभी हुआ उस काल में -
सुन्दर सुमन ज्यों पड़ गया हो कण्टकों के जाल में।
संग्राम में निज-शत्रुओं की देखकर यह नीचता
कहने लगा वह यों वचन दृग युग-करों से मींचता -
"नि:शस्त्र पर तुम वीर बनकर वार करते हो अहो!
है पाप तुमको देखना भी पामरों! सम्मुख ना हो!
 
दो शस्त्र पहले तुम मुझे, फिर युद्ध सब मुझसे करो,
यों स्वार्थ-साधन के लिए मत पाप-पथ में पद धरो।
कुछ प्राण-भिक्षा मैं ना तुमसे माँगता हूँ भीति से,
बस शस्त्र ही मैं चाहता हूँ धर्म-पूर्वक नीति से।
कर में मुझे तुम शस्त्र देकर फिर दिखाओ वीरता,
देखूँ, यहाँ मैं फिर तुम्हारी धीरता, गम्भीरता।
हो सात क्या, सौ भी रहो तो भी रुलाऊँ मैं तुम्हें,
कर पूर्ण रण-लिप्सा अभी क्षण में सुलाऊँ मैं तुम्हें।
नि:शस्त्र पर आघात करना सर्वथा अन्याय है।
स्वीकार करता बात यह सब शूर-जन समुदाय है।
पर जानकर भी हा! इसे आती ना तुमको लाज है,
होता कलंकित आज तुमसे शूरवीर-समाज है।
हैं नीच ये सब शूर पर "आचार्य!" तुम आचार्य हो,
वरवीर-विद्या-विज्ञ मेरे तात-शिक्षक आर्य हो।
फिर आज इनके साथ तुमसे हो रहा जो कर्म है,
मैं पूछता हूँ, वीर का रण में यही क्या धर्म है?
या सत्य है कि अधर्म से मैं निहित होता हूँ अभी,
पर शीघ्र इस दुष्कर्म का तुम दण्ड पाओगे सभी।
क्रोधाग्नि ऐसी पाण्डवों की प्रज्ज्वलित होगी यहाँ,
तुम शीघ्र उसमें भस्म होगे तूल-तुल्य जहाँ तहाँ।
मैं तो अमर होकर यहाँ अब शीघ्र सुरपुर को चला,
पर याद रखो, पाप का होता नहीं है फल भला।
तुम और मेरे अन्य रिपु पामर कहावेंगे सभी,
सुनकर चरित मेरा सदा आँसू बहावेंगे सभी।
हे तात! हे मातुल! जहाँ हो प्रणाम तुम्हें वहीं,
अभिमन्यु का इस भाँति मरना भूल ना जाना कहीं!"
कहता हुआ वह वीर यों रण-भूमि में फिर गिर पड़ा,
हो भंग श्रृंग सुमेरु गिरी का गिर पड़ा हो ज्यों बड़ा।
इस भाँति उसको भूमि पर देखा पतित होते यदा,
दु:शील दु:शासन तनय ने शीश में मारी गदा।
दृग बन्द कर वह यशोधन सर्वदा को सो गया,
हा! एक अनुपम रत्न मानो मेदिनी का खो गया।

 

अभिमन्यु के वध के साथ ही पाण्डव सेना में शोक छा गया। सूर्यास्त हो जाने के कारण दोनों सेनाएँ अपने-अपने शिविर में लौट गईं। अर्जुन भी संशप्तकों का वध करके अपने शिविर की ओर लौटने लगा। अभिमन्यु को शिविर में ना पाकर अर्जुन को बहुत अधिक शोक छा गया और उसने क्रोधवश जयद्रथ के वध का प्रण लिया। 

इस तरह इस शोकसन्तप्त 13वें दिन के युद्ध का अन्त हुआ।

गाते हुए अभिमन्यु के गुण भाइयों के संग में,
होने लगे वे मग्न-से आपत्ति-सिन्धु-तरंग में।
"इस अति विनश्वर-विश्व में दुःख-शोक कहते हैं किसे?
दुःख भोगकर भी बहुत हमने आज जाना है इसे,
निश्चय हमें जीवन हमारा आज भारी हो गया,
संसार का सब सुख हमारा आज सहसा खो गया।
हा! क्या करें? कैसे रहें? अब तो रहा जाता नहीं,
हा! क्या कहें? किससे कहें? कुछ भी कहा जाता नहीं।
क्योंकर सहें इस शोक को? यह तो सहा जाता नहीं;
हे देव, इस दुःख-सिन्धु में अब तो बहा जाता नहीं।
जिस राज्य के हित शत्रुओं से युद्ध है यह हो रहा,
उस राज्य को अब इस भुवन में कौन भोगेगा अहा!
हे वत्सवर अभिमन्यु! वह तो था तुम्हारे ही लिए,
पर हाय! उसकी प्राप्ति के ही समय में तुम चल दिए!

 

जितना हमारे चित्त को आनंद था तुमने दिया,
हा! अधिक उससे भी उसे अब शोक से व्याकुल किया।
हे वत्स बोलो तो ज़रा, सम्बन्ध तोड़ कहाँ चले?
इस शोचनीय प्रसंग में तुम संग छोड़ कहाँ चले?
सुकुमार तुमको जानकर भी युद्ध में जाने दिया,
फल योग्य ही हे पुत्र! उसका शीघ्र हमने पा लिया।
परिणाम को सोच बिना जो लोग करते काम हैं;
वे दुःख में पड़कर कभी पाते नहीं विश्राम हैं।
तुमको बिना देखे अहो! अब धैर्य हम कैसे धरें?
कुछ जान पड़ता है नहीं हे वत्स! अब हम क्या करें?
मेरे लिए ही भेद करके व्यूह द्रोणाचार्य का;
मारे सहस्रों शूर उसने ध्यान धर प्रिय कार्य का;
पर अंत में अन्याय से निरुपाय होकर के वहाँ -
हा हन्त! वो हत हो गया, पाऊँ उसे मैं अब कहाँ?
उद्योग हम सबने बहुत उसको बचाने का किया,
पर खल जयद्रथ ने हमें भीतर नहीं जाने दिया|
रहते हुए भी सो हमारे, युद्ध में वह हत हुआ,
अब क्या रहा सर्वस्व ही हा! हा! हमारा गत हुआ,
पापी जयद्रथ पार उससे जब न रण में पा सका|
उस वीर के जीते हुए सम्मुख न जब वह जा सका|
तब मृतक उसको देख सर पर पैर रक्खा नीच ने,
हा! हा! न यों मनुजत्व को भी स्मरण रक्खा नीच ने||
श्रीकृष्ण से जब ज्येष्ठ पाण्डव थे वचन यों कह रहे,
अर्जुन हृदय पर हाथ रक्खे थे महा-दुःख सह रहे|
'हा पुत्र!' कहकर शीघ्र ही फिर वे मही पर गिर पड़े;
क्या वज्र गिरने पर बड़े भी वृक्ष रह सकते खड़े?
जो शस्त्र शत-शत शत्रुओं के सहन करते थे कड़े,
वे पार्थ ही इस शोक के आघात से जब गिर पड़े;
तब और साधारण जनों के दुःख की है क्या कथा?
होती अतीव अपार है सुत-शोक की दु:सह व्यथा।
 

आपसे पुनः भेंट होगी, धन्यवाद

Back to blog